Thursday, November 23, 2006

Din jaldi jaldi dhalta hai....

दिन जल्दी-जल्दी ढलता है !

हो जाय न पथ में रात कहीं,
मंज़िल भी तो है दूर नहीं
यह सोच थका दिन का पंथी भी,
जल्दी-जल्दी चलता है !

दिन जल्दी-जल्दी ढलता है !

बच्चे प्रत्याशा में होंगे,
नीड़ों से झाँक रहे होंगॆ,
यह ध्यान परों में चिड़ियों के,
भरता कितनी चंचलता है !

दिन जल्दी-जल्दी ढलता है !

मुझसे मिलने को कौन विकल ?
मैं होऊँ किसके हित चंचल ?
यह प्रश्न शिथिल करता पद को,
भरता उर में विह्वलता है !

दिन जल्दी-जल्दी ढलता है !

by : Bachchan. One of my favorite poems.

Tuesday, October 03, 2006

Aagaaz to hota hai...

आगाज़ तो होता है, अंजाम नहीं होता ।
जब मेरी कहानी में, वो नाम नही होता ।

जब ज़ुल्फ़ की क़ालिख़ में, गुल जाए कोई राही ।
बदनाम सही लेकिन, गुमनाम नही होता ।

हँस हँस के जवाँ दिल के हम, क्यों ना चुने टुकडे ।
हर शख़्स की क़िस्मत में, ईनाम नही होता ।

बहते हुए आँसूं ने, आँखों से कहा थम कर ।
जो मय से पिघल जाए, वो जाम नही होता ।

दिन डूबे हैं या डूबी है बारात लिए कश्ती,
साहिल पे मगर कोई कोहराम नही होता ।

जब मेरी कहानी में, वो नाम नही होता ।

Written by very beautiful actress but not so famous for her Shayaris Meena Kumari.

Monday, September 18, 2006

Mushkil hai apna mel priye...

मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नही है खेल प्रिये ।


तुम एम. ए. फ़र्स्ट डिवीजन हो, मैं हुआ मैट्रिक फ़ेल प्रिये ।

मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नही है खेल प्रिये ।


तुम फौजी अफ़्सर की बेटी, मैं तो किसान का बेटा हूँ ।

तुम रबडी खीर मलाई हो, मैं सत्तू सपरेटा हूँ ।

तुम ए. सी. घर में रहती हो, मैं पेड के नीचे लेटा हूँ ।

तुम नयी मारूती लगती हो, मैं स्कूटर लम्बरेटा हूँ ।

इस कदर अगर हम छुप-छुप कर, आपस मे प्रेम बढायेंगे ।

तो एक रोज़ तेरे डैडी अमरीश पुरी बन जायेंगे ।

सब हड्डी पसली तोड मुझे, भिजवा देंगे वो जेल प्रिये ।

मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नही है खेल प्रिये ।


तुम अरब देश की घोडी हो, मैं हूँ गदहे की नाल प्रिये ।

तुम दीवली क बोनस हो, मैं भूखों की हडताल प्रिये ।

तुम हीरे जडी तश्तरी हो, मैं एल्मुनिअम का थाल प्रिये ।

तुम चिकेन-सूप बिरयानी हो, मैन कंकड वाली दाल प्रिये ।

तुम हिरन-चौकडी भरती हो, मैं हूँ कछुए की चाल प्रिये ।

तुम चन्दन-वन की लकडी हो, मैं हूँ बबूल की चाल प्रिये ।

मैं पके आम सा लटका हूँ, मत मार मुझे गुलेल प्रिये ।

मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नही है खेल प्रिये ।


मैं शनि-देव जैसा कुरूप, तुम कोमल कन्चन काया हो ।

मैं तन-से मन-से कांशी राम, तुम महा चन्चला माया हो ।

तुम निर्मल पावन गंगा हो, मैं जलता हुआ पतंगा हूँ ।

तुम राज घाट का शान्ति मार्च, मैं हिन्दू-मुस्लिम दन्गा हूँ ।

तुम हो पूनम का ताजमहल, मैं काली गुफ़ा अजन्ता की ।

तुम हो वरदान विधाता का, मैं गलती हूँ भगवन्ता की ।

तुम जेट विमान की शोभा हो, मैं बस की ठेलम-ठेल प्रिये ।

मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नही है खेल प्रिये ।


तुम नयी विदेशी मिक्सी हो, मैं पत्थर का सिलबट्टा हूँ ।

तुम ए. के.-४७ जैसी, मैं तो इक देसी कट्टा हूँ ।

तुम चतुर राबडी देवी सी, मैं भोला-भाला लालू हूँ ।

तुम मुक्त शेरनी जंगल की, मैं चिडियाघर का भालू हूँ ।

तुम व्यस्त सोनिया गाँधी सी, मैं वी. पी. सिंह सा खाली हूँ ।

तुम हँसी माधुरी दीक्षित की, मैं पुलिसमैन की गाली हूँ ।

कल जेल अगर हो जाये तो, दिलवा देन तुम बेल प्रिये ।

मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नही है खेल प्रिये ।


मैं ढाबे के ढाँचे जैसा, तुम पाँच सितारा होटल हो ।

मैं महुए का देसी ठर्रा, तुम रेड-लेबल की बोतल हो ।

तुम चित्रहार का मधुर गीत, मैं कॄषि-दर्शन की झाडी हूँ ।

तुम विश्व-सुन्दरी सी कमाल, मैं तेलिया छाप कबाडी हूँ ।

तुम सोनी का मोबाइल हो, मैं टेलीफोन वाला हूँ चोंगा ।

तुम मछली मानसरोवर की, मैं सागर तट का हूँ घोंघा ।

दस मन्ज़िल से गिर जाउँगा, मत आगे मुझे ढकेल प्रिये ।

मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नही है खेल प्रिये ।


तुम सत्ता की महरानी हो, मैं विपक्ष की लाचारी हूँ ।

तुम हो ममता-जयललिता सी, मैं क्वारा अटल-बिहारी हूँ ।

तुम तेन्दुलकर का शतक प्रिये, मैं फ़ॉलो-ऑन की पारी हूँ ।

तुम गेट्ज़, मटीज़, कोरोला हो, मैं लेलैन्ड की लॉरी हूँ ।

मुझको रेफ़री ही रहने दो, मत खेलो मुझसे खेल प्रिये ।

मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नही है खेल प्रिये ।


मैं सोच रहा कि रहे हैं कब से, श्रोता मुझको झेल प्रिये ।

मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नही है खेल प्रिये ।


by Pradeep Choubey.

Last week, I happened to read it and I liked this a lot.

Friday, September 15, 2006

Sunset @ oostende, Belgium.

Picture taken by Nikon Coolpix L2. I don't know much about technical aspect of photography so I just clicked this photo with default settings :P. Thanks to my friend Lina for telling me her first lesson of photography "Don't keep your subject in exaclty middle position of photo."

Monday, September 11, 2006

Some random personality test

You Have A Type B+ Personality
You're a pro at going with the flow
You love to kick back and take in everything life has to offer
A total joy to be around, people crave your stability.
While you're totally laid back, you can have bouts of hyperactivity.
Get into a project you love, and you won't stop until it's done
You're passionate - just selective about your passions

Wednesday, September 06, 2006

Vande Mataram : Our national song

Our national song written by Bankim Chandra Chaterjee:-

वन्दे मातरम्
सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम्
सस्यश्यामलां मातरम्॥
शुभ्रज्योत्स्ना पुलकितयामिनीम्
पुल्लकुसुमित द्रुमदलशोभिनीम्
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्
सुखदां वरदां मातरम्॥


कोटि कोटि कन्ठ कलकलनिनाद कराले
कोटि कोटि भुजैर्धृतखरकरवाले
के बोले मा तुमी अबले
बहुबलधारिणीं नमामि तारिणीम्
रिपुदलवारिणीं मातरम्॥

And it's interpretaion in English by Aurobindo goes like this:

Mother, I bow to thee!
Rich with thy hurrying streams,
bright with orchard gleams,
Cool with thy winds of delight,
Dark fields waving Mother of might,
Mother free.

Glory of moonlight dreams,
Over thy branches and lordly streams,
Clad in thy blossoming trees,
Mother, giver of ease
Laughing low and sweet!
Mother I kiss thy feet,
Speaker sweet and low!
Mother, to thee I bow.

Who hath said thou art weak in thy lands
When the sword flesh out in the seventy million hands
And seventy million voices roar
Thy dreadful name from shore to shore?
With many strengths who art mighty and stored,
To thee I call Mother and Lord!
Though who savest, arise and save!
To her I cry who ever her foeman drove
Back from plain and Sea
And shook herself free.

Now our government wants to make it compulsory for everyone to sing it. Why? If somebody finds something that he does not like in it then why he should be forced to it. Don't our constitution give us freedom of speech?

http://www.ibnlive.com/news/if-vande-means-salutation-muslims-to-sing-along/20762-3.html

Now as in the above report, it is said that Islam does not allow to bow to any power other than Allah, why Muslims should be forced to sing this song. Does only singing this song make them patriotic or refusing to sing makes them anti-national. I agree all Muslims may not be refusing to sing it as we have a good pop-version of Vande-Mataram by A. R. Rehman who is also Muslim and the lyrics was written by Mehboob again a Muslim but they didn't have any problem in saying Vande-Mataram. But if somebody has a problem, he should not be forced. There are other national things also that we are not looking at like national bird, national game, national animal etc. I hope they are not going to make it compulsory for everyone to play Hockey, or to have a tiger or to grow a lotus in home just to show that we are patrioitic enough.

Wednesday, August 16, 2006

Koi deewana kahta hai...

कोई दीवाना कहता है, कोई पागल समझता है ।
मगर धरती की बेचैनी को, बस बादल समझता है ।
मैं तुझसे दूर कैसा हूं, तू मुझसे दूर कैसी है ।
ये तेरा दिल समझता है, या मेरा दिल समझता है ।

मोहब्बत एक अहसासों के, पवन सी कहानी है ।
कभी कबिरा दीवाना था, कभी मीरा दीवानी है ।
यहाँ सब लोग कहते हैं मेरी आँखों में आँसूं हैं ।
जो तू समझे तो मोती हैं, जो ना समझे तो पानी हैं ।

समंदर पीर का अन्दर है, लेकिन रो नही सकता ।
ये आँसूं प्यार मोती हैं, इनको खो नही सकता ।
मेरी चाहत को तू दुल्हन बना लेना, मगर सुन ले ।
जो मेरा हो नही पाया, वो तेरा हो नही सकता ।

भ्रमर कोई कुमुदिनी पर मचल बैठा तो हंगामा ।
हमारे दिल में कोई ख्वाब पल बैठा तो हंगामा
अभी तक डूब कर सुनते थे सब किस्सा मोहब्बत का ।
मैं किस्से को हकीकत में बदल बैठा तो हंगामा ।

~By - Dr. Kumar Vishwas @ Moksha "cult festival of NSIT". Found the recording on my friend Sunil's PC and liked these lines very much.

Wednesday, June 14, 2006

Good and Evil

Today was also as bored as other day, but while browsing through some forum messages I found this interesting story..


When Leonardo da Vinci was creating this picture "The Last Supper", he encountered a serious problem: he had to depict Good - in the person of Jesus - and Evil - in the figure of Judas, the friend who resolves to betray him during the meal. He stopped work on the painting until he could find his ideal models.

One day, when he was listening to a choir, he saw in one of the boys the perfect image of Christ. He invited him to his studio and made sketches and studies of his face.

Three years went by. The last supper was almost complete, but Leonardo had still not found the perfect model for Judas. The cardinal responsible for the church started to put pressure on him to finish the mural.

After many days spent vainly searching, the artist came across a prematurely aged youth, in rags and lying drunk in the gutter. With some difficulty, he persuaded his assistants to bring the fellow directly to the church, since there was no time left to make preliminary sketches.

The beggar was taken there, not quite understanding what was going on. He was propped up by Leonardo’s assistants, while Leonardo copied the lines of impiety, sin and egotism so clearly etched on his features.

When he had finished, the beggar, who had sobered up slightly, opened his eyes and saw the picture before him. With a mixture of horror and sadness he said :

“I’ve seen that picture before!”

“When?” asked an astonished Leonardo.

“Three years ago, before I lost everything I had, at a time when I used to sing in a choir and my life was full of dreams. The artist asked me to pose as the model for the face of Jesus”

Good and Evil have the same face; it all depends on when they cross the path of each individual human being.

Tuesday, May 23, 2006

Back then...

बात उन दिनों की है जब मैं कक्षा ग्यारहवीं या बारहवीं में राजकीय इन्टर कॉलेज इलाहाबाद का छात्र था और वो शायद पत्राचार माध्यम से साहित्य में स्नातक की पढाई कर रही थी। 'वो' को फ़िलहाल हम वो ही रहने देते हैं क्योंकि नाम में क्या रखा है?
मैं अपने छोटे भाई और उसके एक दोस्त के साथ किराये पर मकान लेकर पढाई करता था। हमने हाल ही में कमरा बदला था और इस नये कमरे के सामने एक घर था जिसमे फ़िलहाल कोई नही रहता था, उस घर के बगल में कुछ जगह थी जिसमें मुहल्ले के बच्चे क्रिकेट खेला करते थे और इसी खाली जगह के बाद एक घर था जिसमें वो रहा करती थी। उसके घर से बिल्कुल लगा हुआ एक बिजली का खम्भा था सो हम अपनी सुविधा के लिये 'उसे' बिजली खंभे के पास घर वाली लडकी कह लेते हैं।
शायद अक्टूबर या नवम्बर का महीना था और मैं सुबह सुबह मुँह धोने के लिये छ्त पर गया था जब मैने उसे पहली बार देखा। सुबह-सुबह उठना मुझे कभी अच्छा नही लगता था पर उस दिन उसको देखकर मेरे विचार बदल गये। वो हल्के गुलाबी रंग की शलवार-सूट पहने हुए छ्त की छोटी सी दीवार पर टिककर बैठी हुई थी। मैने उसे देखा और बस देखता ही रह गया। थोडी देर में उसे भी शायद लगा कि एक जोडी आँखें लगातार उसे ताक रहीं हैं। उसने मुडकर देखा और एक बार मुस्कराई फ़िर वापस घर के अंदर चली गयी। मैं पता नही कितनी देर तक वहाँ खडा रहा फ़िर चुपचाप नीचे गया और कॉलेज चला गया। उसके बाद तो ये मेरी दिनचर्या हो गयी, सुबह सुबह एक बार देखना फ़िर कॉलेज से वापस आकर छ्त पर ही बैठकर पढाई का नाटक करना और उसके आने और उसकी एक मुस्कान का इन्तज़ार करना। दिन बहुत तेजी से बीतने लगे पर मै रोज एक ही पाठ लेकर बैठा रहता जो कभी खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था।
इसी बीच मुझे 'उसके' बारे में और पता लगा। 'वो' मेरे मकान मालिक की लडकी की सहेली थी और कभी-कभी इनके घर भी आती थी पर अपना रिश्ता अभी भी एक मुस्कराहट का ही था जब भी मुझे देखती एक बार मुस्करा देती। पता नही क्यों, पर मकान मालिक के यहाँ लोग उसके बारे में मुझसे बातें करना शुरु कर दिया था। शायद उन्हें शक हो गया हो कि मैं दिन में छ्त पर ही क्यों पढने जाता हूँ या कोई और बात, मुझे आज तक पता नही चला। वे लोग कहते कि उसका चरित्र ठीक नही है और उसका उस लडके के साथ कोई चक्कर है, हाँ वही लडका जो मुहल्ले के आखिरी घर में किरायेदार है और 'वो' उसके साथ होटल में भी देर रात तक ठहरी थी। पर मुझे इन बातों से कोई फ़र्क नही पडता था और अपनी दिनचर्या ज्यों कि त्यों बनी रही।
अर्धवार्षिक परीक्षायें आयीं और किसी तरह खत्म हो गयीं पर अपनी कहानी बस वहीं जैसे रुक सी गयी थी। धीरे-धीरे मार्च आ गया और मुझे अपनी पढाई की याद आयी। आखिर कितने सपने लेकर मैं इलाहाबाद पढने आया था :)। पढाई याद आने का एक और कारण ये भी हो सकता है कि उस समय तक धूप तेज होने लगी थी और अब छ्त पर उसका आना भी कम हो गया था जो भी कारण रहा हो पर मैने पढाई पर ध्यान दिया जब तक कि परिक्षायें खत्म नहीं हो गयीं।
आखिर परीक्षायें खत्म हो गयीं और मेरे पेपर भी अच्छे ही हुए। पर अभी भी कुछ कोचिंग चल रहीं थीं सो मुझे अभी भी और कुछ दिन रुकना था और मेरे लिये ये एक वरदान जैसे था। अब समय कुछ बदल गया था छ्त पर जाने का, क्योंकि अब दिन में तेज धूप होती थी सो शाम को ही सब लोग छ्त पर जाते थे। मई या जून में मकान-मालिक की लडकी की शादी थी जिसके लिये मकान-मालिक ने मेरे पिताजी से काफ़ी आग्रह किया था सो पिताजी ने मुझे ही शादी में जाने को बोल दिया था। कुछ और समय रुकने का मिला। शादी का दिन आ गया और मैं भी मकान-मालिक के गाँव पहुँच गया। वहाँ 'वो' भी आयी थी देखकर दिल खुश हो गया। शादी काफ़ी ठीक-ठाक सी हुई और दूसरे दिन लगभग १२ बजे 'वो' मेरे पास आयी और बोली "अशोक मैं वापस इलाहाबाद जा रही हूँ, साथ चलोगे?" एक क्षण के लिये तो मैं अवाक रह गया फ़िर बोला "रुको अपना समान ले लूँ फ़िर चलते हैं।" मैं हद खुशी के साथ अपना सामान लाने मकान-मालिक के घर में गया। मुझे जाते देख मकान-मालिक ने पूछा "कहाँ जा रहे हो?" लो सिर मुंडाते ही ओले पडे। मैं बोला "वापस इलाहाबाद ।" मकान-मालिक- "अभी बहुत धूप है शाम को तुम्हारे ये भैया जायेंगे उनके साथ चले जाना मैने तुम्हारे पापा को बोला था कि कोई दिक्कत नही होगी और मैं नही चाहता कि तुम यहाँ से जाकर बीमार पड जाओ" अब इन्हें कौन बताये कि अभी ना जाने में ही सारी दिक्कत है। मैने फिर आखिरी कोशिश की-"और लोग भी तो अभी ही जा रहे हैं।" मकान-मालिक-"ठीक है उन्हे जाने दो उनके बाप ने मेरे को कुछ नही कहा था।" अब कुछ बोलना व्यर्थ था। मैं वापस आया और उसे बोला "क्या तुम शाम को नही चल सकती, अभी बहुत धूप है।" वो फिर से मुस्करायी और बोली "मैं इतनी नाजुक नही हूँ और मुझे कुछ काम है सो अभी जाना जरूरी है। ठीक है तुम शाम में आ जाना। बॉय" और वो चली आयी। मैं शाम को इलाहाबाद आया और उसी दिन वापस गाँव चला गया।
गर्मी की छुट्टी के बाद वापस आया तो कुछ प्रॉब्लम्स की वजह से वो मकान छोडना पडा और हमने दूसरा मकान ढूँढा और मैं सारा ध्यान पढाई में लगाने लगा क्योंकि अगली बार आई. आई. टी. की प्रवेश परीक्षा भी देनी थी। १२वीं पास की और सौभाग्य से आई. आई. टी. की प्रवेश परीक्षा भी पास कर ली मैने। फिर एक दिन मैं पिछ्ले मुहल्ले में पुराने दोस्तों से मिलने गया। दोस्त की छ्त पर खडा होकर मैं लगातार उस खंभे वाले घर की तरफ देख रहा था कि अचानक मेरे दोस्त ने मेरे कन्धे पर हाथ रखकर कहा-"अब 'वो' वहाँ नही दिखेगी ।" मैने चौककर पूछा-"कौन नही दिखेगी?" दोस्त-"वही जिसे तुम्हारी नजरें तब से ढूँढ रही हैं।" मैने पूछा-"क्यों? आखिर हुआ क्या?" मेरे दोस्त ने कहा "तुम्हे नही पता? उसकी शादी हो गयी।" मैं-"कब? किससे?" दोस्त-"पिछले महीने ही तो थी। उसी लडके से जो मुहल्ले के अखिरी घर में किरायेदार था।" मैं थोडी देर तक वहीं खडा रहा जाने क्या सोचता रहा फिर वापस आ गया।
इस बात को आज लगभग ५-६ साल हो गयें हैं। मुझे नही पता कि 'वो' अब कहाँ है। कभी-कभी सोचता हूँ क्या बेवकूफ़ी थी ये सब। पर फिर भी कभी-कभी 'वो' खंभे के पास घर वाली लडकी याद आ जाती है और अहसास होता है कि कितने अच्छे थे वे दिन और मेरा मन फिर भागने लगता है उन दिनों कि खोज में।

Monday, May 15, 2006

Godse's Interview..

As I had absolultely no work in office today, I found the following link about Gopal Godse's interview by TIME. Gopal Godse is brother of Nathuram Godse assassin of Gandhi.
Gopal Godse's Interview