मैं अपने छोटे भाई और उसके एक दोस्त के साथ किराये पर मकान लेकर पढाई करता था। हमने हाल ही में कमरा बदला था और इस नये कमरे के सामने एक घर था जिसमे फ़िलहाल कोई नही रहता था, उस घर के बगल में कुछ जगह थी जिसमें मुहल्ले के बच्चे क्रिकेट खेला करते थे और इसी खाली जगह के बाद एक घर था जिसमें वो रहा करती थी। उसके घर से बिल्कुल लगा हुआ एक बिजली का खम्भा था सो हम अपनी सुविधा के लिये 'उसे' बिजली खंभे के पास घर वाली लडकी कह लेते हैं।
शायद अक्टूबर या नवम्बर का महीना था और मैं सुबह सुबह मुँह धोने के लिये छ्त पर गया था जब मैने उसे पहली बार देखा। सुबह-सुबह उठना मुझे कभी अच्छा नही लगता था पर उस दिन उसको देखकर मेरे विचार बदल गये। वो हल्के गुलाबी रंग की शलवार-सूट पहने हुए छ्त की छोटी सी दीवार पर टिककर बैठी हुई थी। मैने उसे देखा और बस देखता ही रह गया। थोडी देर में उसे भी शायद लगा कि एक जोडी आँखें लगातार उसे ताक रहीं हैं। उसने मुडकर देखा और एक बार मुस्कराई फ़िर वापस घर के अंदर चली गयी। मैं पता नही कितनी देर तक वहाँ खडा रहा फ़िर चुपचाप नीचे गया और कॉलेज चला गया। उसके बाद तो ये मेरी दिनचर्या हो गयी, सुबह सुबह एक बार देखना फ़िर कॉलेज से वापस आकर छ्त पर ही बैठकर पढाई का नाटक करना और उसके आने और उसकी एक मुस्कान का इन्तज़ार करना। दिन बहुत तेजी से बीतने लगे पर मै रोज एक ही पाठ लेकर बैठा रहता जो कभी खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था।
इसी बीच मुझे 'उसके' बारे में और पता लगा। 'वो' मेरे मकान मालिक की लडकी की सहेली थी और कभी-कभी इनके घर भी आती थी पर अपना रिश्ता अभी भी एक मुस्कराहट का ही था जब भी मुझे देखती एक बार मुस्करा देती। पता नही क्यों, पर मकान मालिक के यहाँ लोग उसके बारे में मुझसे बातें करना शुरु कर दिया था। शायद उन्हें शक हो गया हो कि मैं दिन में छ्त पर ही क्यों पढने जाता हूँ या कोई और बात, मुझे आज तक पता नही चला। वे लोग कहते कि उसका चरित्र ठीक नही है और उसका उस लडके के साथ कोई चक्कर है, हाँ वही लडका जो मुहल्ले के आखिरी घर में किरायेदार है और 'वो' उसके साथ होटल में भी देर रात तक ठहरी थी। पर मुझे इन बातों से कोई फ़र्क नही पडता था और अपनी दिनचर्या ज्यों कि त्यों बनी रही।
अर्धवार्षिक परीक्षायें आयीं और किसी तरह खत्म हो गयीं पर अपनी कहानी बस वहीं जैसे रुक सी गयी थी। धीरे-धीरे मार्च आ गया और मुझे अपनी पढाई की याद आयी। आखिर कितने सपने लेकर मैं इलाहाबाद पढने आया था :)। पढाई याद आने का एक और कारण ये भी हो सकता है कि उस समय तक धूप तेज होने लगी थी और अब छ्त पर उसका आना भी कम हो गया था जो भी कारण रहा हो पर मैने पढाई पर ध्यान दिया जब तक कि परिक्षायें खत्म नहीं हो गयीं।
आखिर परीक्षायें खत्म हो गयीं और मेरे पेपर भी अच्छे ही हुए। पर अभी भी कुछ कोचिंग चल रहीं थीं सो मुझे अभी भी और कुछ दिन रुकना था और मेरे लिये ये एक वरदान जैसे था। अब समय कुछ बदल गया था छ्त पर जाने का, क्योंकि अब दिन में तेज धूप होती थी सो शाम को ही सब लोग छ्त पर जाते थे। मई या जून में मकान-मालिक की लडकी की शादी थी जिसके लिये मकान-मालिक ने मेरे पिताजी से काफ़ी आग्रह किया था सो पिताजी ने मुझे ही शादी में जाने को बोल दिया था। कुछ और समय रुकने का मिला। शादी का दिन आ गया और मैं भी मकान-मालिक के गाँव पहुँच गया। वहाँ 'वो' भी आयी थी देखकर दिल खुश हो गया। शादी काफ़ी ठीक-ठाक सी हुई और दूसरे दिन लगभग १२ बजे 'वो' मेरे पास आयी और बोली "अशोक मैं वापस इलाहाबाद जा रही हूँ, साथ चलोगे?" एक क्षण के लिये तो मैं अवाक रह गया फ़िर बोला "रुको अपना समान ले लूँ फ़िर चलते हैं।" मैं हद खुशी के साथ अपना सामान लाने मकान-मालिक के घर में गया। मुझे जाते देख मकान-मालिक ने पूछा "कहाँ जा रहे हो?" लो सिर मुंडाते ही ओले पडे। मैं बोला "वापस इलाहाबाद ।" मकान-मालिक- "अभी बहुत धूप है शाम को तुम्हारे ये भैया जायेंगे उनके साथ चले जाना मैने तुम्हारे पापा को बोला था कि कोई दिक्कत नही होगी और मैं नही चाहता कि तुम यहाँ से जाकर बीमार पड जाओ" अब इन्हें कौन बताये कि अभी ना जाने में ही सारी दिक्कत है। मैने फिर आखिरी कोशिश की-"और लोग भी तो अभी ही जा रहे हैं।" मकान-मालिक-"ठीक है उन्हे जाने दो उनके बाप ने मेरे को कुछ नही कहा था।" अब कुछ बोलना व्यर्थ था। मैं वापस आया और उसे बोला "क्या तुम शाम को नही चल सकती, अभी बहुत धूप है।" वो फिर से मुस्करायी और बोली "मैं इतनी नाजुक नही हूँ और मुझे कुछ काम है सो अभी जाना जरूरी है। ठीक है तुम शाम में आ जाना। बॉय" और वो चली आयी। मैं शाम को इलाहाबाद आया और उसी दिन वापस गाँव चला गया।
गर्मी की छुट्टी के बाद वापस आया तो कुछ प्रॉब्लम्स की वजह से वो मकान छोडना पडा और हमने दूसरा मकान ढूँढा और मैं सारा ध्यान पढाई में लगाने लगा क्योंकि अगली बार आई. आई. टी. की प्रवेश परीक्षा भी देनी थी। १२वीं पास की और सौभाग्य से आई. आई. टी. की प्रवेश परीक्षा भी पास कर ली मैने। फिर एक दिन मैं पिछ्ले मुहल्ले में पुराने दोस्तों से मिलने गया। दोस्त की छ्त पर खडा होकर मैं लगातार उस खंभे वाले घर की तरफ देख रहा था कि अचानक मेरे दोस्त ने मेरे कन्धे पर हाथ रखकर कहा-"अब 'वो' वहाँ नही दिखेगी ।" मैने चौककर पूछा-"कौन नही दिखेगी?" दोस्त-"वही जिसे तुम्हारी नजरें तब से ढूँढ रही हैं।" मैने पूछा-"क्यों? आखिर हुआ क्या?" मेरे दोस्त ने कहा "तुम्हे नही पता? उसकी शादी हो गयी।" मैं-"कब? किससे?" दोस्त-"पिछले महीने ही तो थी। उसी लडके से जो मुहल्ले के अखिरी घर में किरायेदार था।" मैं थोडी देर तक वहीं खडा रहा जाने क्या सोचता रहा फिर वापस आ गया।
इस बात को आज लगभग ५-६ साल हो गयें हैं। मुझे नही पता कि 'वो' अब कहाँ है। कभी-कभी सोचता हूँ क्या बेवकूफ़ी थी ये सब। पर फिर भी कभी-कभी 'वो' खंभे के पास घर वाली लडकी याद आ जाती है और अहसास होता है कि कितने अच्छे थे वे दिन और मेरा मन फिर भागने लगता है उन दिनों कि खोज में।